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फिर वही

फिर वही दिन वही सुबह वही ज़िंदगानी फिर वही शब वही जाम वही आँखों में पानी हम इस दुनिया में जी लगाये तो कैसे फिर वही पाप वही ज़ुल्म वही बेईमानी अब तो मेरे ओहदे से परे कर मुझको फिर वही जी वही हुज़ूर वही कद्रदानी हमें उमीद थी तुम्हारी ताजपोशी से पर फिर वही गुरुर वही नशा वही मनमानी अब कहने को 'अश्क़' बाकि है क्या फिर वही गीत वही ग़ज़ल वही कहानी

नारी

पापा ऑफिस से आये तो माँ को भूल गयी प्यार हुआ तो माँ बाप को भूल गयी शादी हुई तो सहेलियों को भूल गयी बच्चे हुए तो पति को भूल गयी बच्चे बड़े हुए तो मुझको भूल गये मैं बूढ़ी हुई तो दुनिया मुझे भूल गयी इसी भूल भुलैय्या मे हर नारी जी रही है ~अश्क़ जगदलपुरी