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क्या - एक ग़ज़ल

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क्या तुम्हारा दिल भी बहुत भारी है क्या तुम्हे भी इश्क़ की बीमारी है क्या नज़रे मिलते ही झुक जाती है क्या उसकी आँखों मे भी बेकरारी है क्या उसकी गली मे रोज़ जाते हो क्या मार खाने की तैयारी है क्या उसके ख़याल मे गुज़रता है सारा दिन क्या तुम्हारी नौकरी सरकारी है क्या कुछ ना कह पाये आज भी उस से क्या कहने को बातें भी बहुत सारी है क्या ख्वाब सारे उसी के आते है क्या नींद मे भी जुस्तजू जारी है क्या दुनिया मे लाना ही एक काम था तेरा क्या उसके आगे भी कोई ज़िम्मेदारी है क्या बेच दी ग़ज़ल चंद सिक्कों की खातिर क्या 'अश्क़' की यही खुद्दारी है ~अश्क़ जगदलपुरी 

Zaruri hai - Nazm on Life

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                 ज़रूरी है  पानी को बहते रहना ज़रूरी है कहानी को कहते रहना ज़रूरी है  हाल जो कुछ भी हो आदमी का ज़िन्दगी को जीते रहना ज़रूरी है बुढ़ापा आगया तो क्या मर जाये हम तुम्हारे सिवा अब किधर जाये दवा बेअसर मालूम हो तब भी दवा को पीते  रहना ज़रूरी है आदमी को जानवर से कम प्यार दिया धीरे धीरे तुमने उसे मार दिया नमक लिए फिरते है लोग आँखों मे जख्म को सीते रहना ज़रूरी है पुरानी बातों को कब तक याद रखे अपने घरोंदे को क्यूँ बर्बाद रखे कल जो आएगा उसकी ख़ुशी की खातिर जो बीत गया उसे बीते रहना ज़रूरी है अश्क़ जगदलपुरी 

Chidiya - A peom for daughters

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                चिड़िया पल भर में रोती पल भर में वो हसती है मेरे घर में एक नन्ही चिड़िया बसती है एक उसकी मुस्कान ही तो है जिसके आगे ये सारी दुनिया सस्ती है घर मेरा अब घर जैसा नहीं लगता लगता है जैसे कोई खिलोनो की बस्ती है ठुमकती इठलाती नाचती मचलती भी मेरे आंगन में घटा छम छम कर के बरसती है लगता है ऐसा जैसे सारी दुनिया सिमट गयी 'अश्क़' जब मुझको वो नन्ही बाँहों में कसती है अश्क़ जगदलपुरी