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क्यों है

ज़िन्दगी दे के हमें सताता क्यों है  मौत देता है तो दे तड़पता क्यों है  फूंकी है जान मिट्टी के जिस्म में तूने ही  फिर दुनिया का हर शख्स मर जाता क्यों है  मै तेरे नशे में ही चूर रहता हूँ  फिर मुझे तू और पिलाता क्यों है  जो जानवर भी ना सलीके के बन पाएंगे  ऐसे लोगों को तू इंसान बनाता क्यों है  तू कहता है शराब बुरी है बहुत  इतनी बुरी है तो बनाता क्यों है  'अश्क़' है तो आँखों से बरस जाता  कम्बख्त दिल में उतर जाता क्यों है 

फिर वही

फिर वही दिन वही सुबह वही ज़िंदगानी फिर वही शब वही जाम वही आँखों में पानी हम इस दुनिया में जी लगाये तो कैसे फिर वही पाप वही ज़ुल्म वही बेईमानी अब तो मेरे ओहदे से परे कर मुझको फिर वही जी वही हुज़ूर वही कद्रदानी हमें उमीद थी तुम्हारी ताजपोशी से पर फिर वही गुरुर वही नशा वही मनमानी अब कहने को 'अश्क़' बाकि है क्या फिर वही गीत वही ग़ज़ल वही कहानी

ज़हर बह रहा है

ज़हर बह रहा है पानी में हवा में नवजात ज़हर पी रहे है माँ के स्तनों से खेतोँ में अब आग ही आग है हवा में अब स्मॉग ही स्मॉग है नदी में अब झाग ही झाग है आओ आवाहन करें इसी झाग में डूब मरे ~ अश्क़ जगदलपुरी