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क्यों है

ज़िन्दगी दे के हमें सताता क्यों है  मौत देता है तो दे तड़पता क्यों है  फूंकी है जान मिट्टी के जिस्म में तूने ही  फिर दुनिया का हर शख्स मर जाता क्यों है  मै तेरे नशे में ही चूर रहता हूँ  फिर मुझे तू और पिलाता क्यों है  जो जानवर भी ना सलीके के बन पाएंगे  ऐसे लोगों को तू इंसान बनाता क्यों है  तू कहता है शराब बुरी है बहुत  इतनी बुरी है तो बनाता क्यों है  'अश्क़' है तो आँखों से बरस जाता  कम्बख्त दिल में उतर जाता क्यों है 

कोरोना पर एक कविता

सूने रास्ते सूनी गलियां सूने सूने उपवन है  सूने मंदिर सूने मस्जिद सूने सूने आंगन है  किन्तु केवल कुछ दिनों के लिये ये सूनापन है  सर्वोपरि है घर में रहना अनमोल हर जीवन है  लड़ना ही है तो अपनों से क्यों? अपनों के लिये लड़ना होगा  धन, अन्न, दवा, परिश्रम का महादान करना होगा  भूखों की भूख, दुखियो का दुख इस विकट समय हरना होगा  अल्लाह, ईश्वर सब देवो का अब आवाहन करना होगा  ये कर्म भूमि ये देव भूमि जो भारत वर्ष कहलाती है  ये वेद भूमि ये प्राण दायनी जीवन की ज्योत जलाती है  कोरोना से लड़ने वीरों, तुम्हे ये मात्रभूमि बुलाती है  इसकी रक्षा ही परम धर्म है ये भूमि माँ कहलाती है आओ मिलकर हम इस महामारी पर वार करें  सम्मान करें उन वीरों को जो कोरोना संहार करे कठिनाई के दरिया को दृढ़ निश्चय ही से पार करें  दूरी तन की तन से हो पर मन से सबको प्यार करें आपका अश्क़ जगदलपुरी 

फिर वही

फिर वही दिन वही सुबह वही ज़िंदगानी फिर वही शब वही जाम वही आँखों में पानी हम इस दुनिया में जी लगाये तो कैसे फिर वही पाप वही ज़ुल्म वही बेईमानी अब तो मेरे ओहदे से परे कर मुझको फिर ...

ज़हर बह रहा है

ज़हर बह रहा है पानी में हवा में नवजात ज़हर पी रहे है माँ के स्तनों से खेतोँ में अब आग ही आग है हवा में अब स्मॉग ही स्मॉग है नदी में अब झाग ही झाग है आओ आवाहन करें इसी झाग में डूब मरे...

नारी

पापा ऑफिस से आये तो माँ को भूल गयी प्यार हुआ तो माँ बाप को भूल गयी शादी हुई तो सहेलियों को भूल गयी बच्चे हुए तो पति को भूल गयी बच्चे बड़े हुए तो मुझको भूल गये मैं बूढ़ी हुई तो दुनि...

हमको अब आदत सी हो गयी है -अश्क़ जगदलपुरी

हमको अब आदत सी हो गयी है रास्तो पे गड्ढों की, शराब के अड्डों की, पानी के कमी की, आखों मे नमी की, बिजली के आभाव की, स्वार्थी स्वभाव की संतो के जेल की, नेताओं के बेल की हमको अब आदत सी हो गयी है, शादी पे दहेज़ की, अपनों से परहेज की एसिड से जलने की कलियों को मसलने की फ़ौजी विधवाओं की आतंक के आकाओं की कूड़ेदान मे बच्चियों की और पंखे से लटकी रस्सियों की हमको अब आदत सी हो गयी है देरी से चलती रेलों की भरी हुई जेलों की लोगों से लदी बसों की कटी हुई नसों की मिग 21 के गिरने की जांबाज़ों के मरने की बढ़ते प्रदुषण की और सियासी आरक्षण की हमको अब आदत सी हो गयी है शहीद होते जवानों की टूटते अरमानों की बदबूदार नालों की सरकारी घोटालों की डूबते शहरों की हवस भरे चेहरों की बाबुओं के घमंड की और नेताओं के पाखंड की हमको अब तो आदत सी हो गयी है देश विरोधी नारों की, लम्बी लम्बी कतारों की हिन्दू मुस्लिम दंगों की खादी मे भुजंगो की दशकों चलते मुकदमों की मिडिल क्लास के सदमों की दोपहर मे आराम की और टाट के निचे राम की हमको अब आदत सी हो गयी है ~अश्क़ जगदलपुरी