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कोरोना पर एक कविता

सूने रास्ते सूनी गलियां सूने सूने उपवन है  सूने मंदिर सूने मस्जिद सूने सूने आंगन है  किन्तु केवल कुछ दिनों के लिये ये सूनापन है  सर्वोपरि है घर में रहना अनमोल हर जीवन है  लड़ना ही है तो अपनों से क्यों? अपनों के लिये लड़ना होगा  धन, अन्न, दवा, परिश्रम का महादान करना होगा  भूखों की भूख, दुखियो का दुख इस विकट समय हरना होगा  अल्लाह, ईश्वर सब देवो का अब आवाहन करना होगा  ये कर्म भूमि ये देव भूमि जो भारत वर्ष कहलाती है  ये वेद भूमि ये प्राण दायनी जीवन की ज्योत जलाती है  कोरोना से लड़ने वीरों, तुम्हे ये मात्रभूमि बुलाती है  इसकी रक्षा ही परम धर्म है ये भूमि माँ कहलाती है आओ मिलकर हम इस महामारी पर वार करें  सम्मान करें उन वीरों को जो कोरोना संहार करे कठिनाई के दरिया को दृढ़ निश्चय ही से पार करें  दूरी तन की तन से हो पर मन से सबको प्यार करें आपका अश्क़ जगदलपुरी 

हिन्दू मुसलमान

क्या खुदा ने ही ये इंसान बनाया है? मुझे हिन्दू तुम्हे मुस्लमान बनाया है? अगर ऐसा होता,  तो चाँद तारे भी मज़हबी होते            वो भी आपस में लड़ते वहा भी दंगे होते अगर ऐसा होता,  तो जानवरों का भी धर्म होता             बकरी और भेड़ों का खूब झगड़ा होता अगर ऐसा होता,  तो पेड़ो की भी जाती होती        तितली कुछ फूलों को कभी भी ना छूती अगर ऐसा होता,  तो मछलिया भी इतराती पानी में भी वो अपना अलग बसेरा बनाती  मगर ऐसा नहीं है, मगर ऐसा नहीं है ! मैं भी सही नहीं हूँ तू भी सही नहीं है ! तो आओ अब हम पहले अच्छे इंसान बने फिर गर ज़रूरत हो तो हिन्दू बने मुस्लमान बने ~अश्क़ जगदलपुरी

ज़हर बह रहा है

ज़हर बह रहा है पानी में हवा में नवजात ज़हर पी रहे है माँ के स्तनों से खेतोँ में अब आग ही आग है हवा में अब स्मॉग ही स्मॉग है नदी में अब झाग ही झाग है आओ आवाहन करें इसी झाग में डूब मरे ~ अश्क़ जगदलपुरी

नारी

पापा ऑफिस से आये तो माँ को भूल गयी प्यार हुआ तो माँ बाप को भूल गयी शादी हुई तो सहेलियों को भूल गयी बच्चे हुए तो पति को भूल गयी बच्चे बड़े हुए तो मुझको भूल गये मैं बूढ़ी हुई तो दुनिया मुझे भूल गयी इसी भूल भुलैय्या मे हर नारी जी रही है ~अश्क़ जगदलपुरी

हमको अब आदत सी हो गयी है -अश्क़ जगदलपुरी

हमको अब आदत सी हो गयी है रास्तो पे गड्ढों की, शराब के अड्डों की, पानी के कमी की, आखों मे नमी की, बिजली के आभाव की, स्वार्थी स्वभाव की संतो के जेल की, नेताओं के बेल की हमको अब आदत सी हो गयी है, शादी पे दहेज़ की, अपनों से परहेज की एसिड से जलने की कलियों को मसलने की फ़ौजी विधवाओं की आतंक के आकाओं की कूड़ेदान मे बच्चियों की और पंखे से लटकी रस्सियों की हमको अब आदत सी हो गयी है देरी से चलती रेलों की भरी हुई जेलों की लोगों से लदी बसों की कटी हुई नसों की मिग 21 के गिरने की जांबाज़ों के मरने की बढ़ते प्रदुषण की और सियासी आरक्षण की हमको अब आदत सी हो गयी है शहीद होते जवानों की टूटते अरमानों की बदबूदार नालों की सरकारी घोटालों की डूबते शहरों की हवस भरे चेहरों की बाबुओं के घमंड की और नेताओं के पाखंड की हमको अब तो आदत सी हो गयी है देश विरोधी नारों की, लम्बी लम्बी कतारों की हिन्दू मुस्लिम दंगों की खादी मे भुजंगो की दशकों चलते मुकदमों की मिडिल क्लास के सदमों की दोपहर मे आराम की और टाट के निचे राम की हमको अब आदत सी हो गयी है ~अश्क़ जगदलपुरी

क्या - एक ग़ज़ल

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क्या तुम्हारा दिल भी बहुत भारी है क्या तुम्हे भी इश्क़ की बीमारी है क्या नज़रे मिलते ही झुक जाती है क्या उसकी आँखों मे भी बेकरारी है क्या उसकी गली मे रोज़ जाते हो क्या मार खाने की तैयारी है क्या उसके ख़याल मे गुज़रता है सारा दिन क्या तुम्हारी नौकरी सरकारी है क्या कुछ ना कह पाये आज भी उस से क्या कहने को बातें भी बहुत सारी है क्या ख्वाब सारे उसी के आते है क्या नींद मे भी जुस्तजू जारी है क्या दुनिया मे लाना ही एक काम था तेरा क्या उसके आगे भी कोई ज़िम्मेदारी है क्या बेच दी ग़ज़ल चंद सिक्कों की खातिर क्या 'अश्क़' की यही खुद्दारी है ~अश्क़ जगदलपुरी 

What is Ghazal - an introduction by Ashq Jagdalpuri - ग़ज़ल क्या है - एक परिचय

मिले जो किसी से नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई  रहे न अपनी खबर तो समझो ग़ज़ल हुई  उदास बिस्तर की सिलवटें जब तुम्हें चुभें  ना सो सको रात भर तो समझो ग़ज़ल हुई                                  ~ जफ़र गोरखपुरी परिचय - ग़ज़ल शायरी की सब से प्रसिद्ध स्वरुप में से एक है। ग़ज़ल का जन्म अरब देशों में 7वी शताब्दी में हुआ था। पहले ग़ज़ल का कोई व्यग्तिगत स्वरुप नहीं था। ग़ज़ल को कसीदे के शुरुवात में पढ़ा जाता था। कसीदे ज्यादातर राजा महाराजा की शान में कहे जाते थे जिसमे 100 से ज्यादा शेर होते थे। धीरे धीरे ग़ज़ल कसीदे से अलग होकर अपना स्थान अरबी और फ़ारसी साहित्य में बनाने लगी। मुस्लिम शासकों द्वारा इस कला का परिचय भारतीय उप महाद्वीप से कराया गया। 18वी शताब्दी में मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे शायरों ने उर्दू ग़ज़ल की इस कला को इतनी उचाईयों तक पंहुचा दिया की आज तक लोग इनके शेर आम बोल चाल में इस्तेमाल करते है। जैसे ग़ालिब का ये शेर   वो आये घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है  कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते है                                      ~ मिर्ज़ा ग़ालिब  या मीर तक़ी मीर का ये शेर      इब्तिदा-ए -

Chidiya - A peom for daughters

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                चिड़िया पल भर में रोती पल भर में वो हसती है मेरे घर में एक नन्ही चिड़िया बसती है एक उसकी मुस्कान ही तो है जिसके आगे ये सारी दुनिया सस्ती है घर मेरा अब घर जैसा नहीं लगता लगता है जैसे कोई खिलोनो की बस्ती है ठुमकती इठलाती नाचती मचलती भी मेरे आंगन में घटा छम छम कर के बरसती है लगता है ऐसा जैसे सारी दुनिया सिमट गयी 'अश्क़' जब मुझको वो नन्ही बाँहों में कसती है अश्क़ जगदलपुरी