What is Ghazal - an introduction by Ashq Jagdalpuri - ग़ज़ल क्या है - एक परिचय
मिले जो किसी से नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई
रहे न अपनी खबर तो समझो ग़ज़ल हुई
उदास बिस्तर की सिलवटें जब तुम्हें चुभें
ना सो सको रात भर तो समझो ग़ज़ल हुई
~ जफ़र गोरखपुरी
परिचय -ग़ज़ल शायरी की सब से प्रसिद्ध स्वरुप में से एक है। ग़ज़ल का जन्म अरब देशों में 7वी शताब्दी में हुआ था। पहले ग़ज़ल का कोई व्यग्तिगत स्वरुप नहीं था। ग़ज़ल को कसीदे के शुरुवात में पढ़ा जाता था। कसीदे ज्यादातर राजा महाराजा की शान में कहे जाते थे जिसमे 100 से ज्यादा शेर होते थे। धीरे धीरे ग़ज़ल कसीदे से अलग होकर अपना स्थान अरबी और फ़ारसी साहित्य में बनाने लगी। मुस्लिम शासकों द्वारा इस कला का परिचय भारतीय उप महाद्वीप से कराया गया। 18वी शताब्दी में मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे शायरों ने उर्दू ग़ज़ल की इस कला को इतनी उचाईयों तक पंहुचा दिया की आज तक लोग इनके शेर आम बोल चाल में इस्तेमाल करते है। जैसे ग़ालिब का ये शेर
वो आये घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते है
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
या मीर तक़ी मीर का ये शेर
इब्तिदा-ए -इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
~ मीर तक़ी मीर
समय के साथ ग़ज़ल में कई बदलाव आये जहाँ पहले ग़ज़ल अरबी से होते हुए फ़ारसी तक पहुंची वही भारतीय उप महाद्वीप में उर्दू और हिंदी में इसने अपनी छाप छोड़ी। ग़ज़ल को पंजाबी पश्तो जैसी क्षेत्रीय भाषाओ में कहा गया वहीं आज कई इंग्लिश और यूरोपीय भाषाओं में भी ग़ज़ल कही जा रही है।
संरचना -
ग़ज़ल में ज्यादातर 5 से अधिक शेर होते है। शेर कहा जाता है २ पंक्तियों को और १ पंक्ति को मिसरा कहा जाता है २ मिसरो से १ शेर बनता है। ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहते है। मतले की विशेषता होती है की इसकी दोनों पंक्तियों यानी मिसरों में तुकबंदी होती है। उदाहरण के तौर पे
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
~ क्र बी नूर
उपरोक्त शेर में 'सज़ा' और 'पता' में तुकबंदी है जिसे काफ़िया कहा जाता है। 'ही नहीं' को रदीफ़ कहा जाता है जो हर शेर में सामान रहता है बदलता नहीं है। मतले के बाद जो शेर आते है उनमें पहली पंक्ति यानी मिसरे में काफ़िया नहीं होता बल्कि दूसरे मिसरे में होता है। उदाहरण के तौर पर एक मतला और एक शेर ये है -
आप जिनके करीब होते है
वो बड़े खुश नसीब होते है
जब तबियत किसी पर आती है
मौत के दिन करीब होते है
~ नूह नार्वी
ग़ज़ल में शेर कितने भी हो सकते है पर ज्यादातर 5 -15 शेर होते है। ग़ज़ल के आख़िरी शेर को मक़्ता कहा जाता है। इस शेर में ज्यादातर शायर अपना तखल्लुस यानि उप नाम का प्रयोग करते है। उदाहरण के तौर पे -
क्यों सुने अर्ज़ ए मुंतज़र ए 'मोमिन'
सनम ग़मगीन आखिर ख़ुदा नहीं होता
~ मोमिन खान मोमिन
इन सब के अलावा ग़ज़ल की एक और पहचान होती है जिसे बहर कहा जाता है। बहर का अर्थ होता है की ग़ज़ल में शब्दों को एक लय के तहत पिरोया जाता है जिस से वो गाने योग्य बन जाये। इस के लिए मात्राओ की गणना करनी पड़ती है और फिर बहर के अनुसार शब्दों को बैठाया जाता है और काफिया रदीफ़ से सजाया जाता है। ग़ज़ल की एक और खास बात ये होती है की ग़ज़ल का हर शेर किसी एक विषय से बंधा हुआ नहीं होता। ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में एक मुकम्मल बयान होता है। शायद इसीलिए ग़ज़ल इतनी लोकप्रिय हुई क्योंकि इसके शेर दो पंक्तियों में पूरी बात कहने में सफल होते है।
आधुनिक इतिहास -
रिवायती तौर पे ग़ज़ल किसी चाहने वाले की तारीफ में या याद में कही जाती थी। ज्यादातर ग़ज़लें एक आशिक़ के नज़रिये से लिखी एवं पढ़ी जाती थी। ग़ालिब के दौर में शायर या तो महबूब के प्यार में दीवाना होता था या उसकी जुदाई में ग़मग़ीन। ग़ालिब का एक शेर है
हज़ारो ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ लेकिन फिर भी कम निकले
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
एक ओर ग़ज़ल के मायने महबूब से बातें करना होता है वही समय के साथ साथ ग़ज़ल समाज का आईना भी बन गयी। ग़ज़ल में सियासत से लेकर हर प्रकार के विचारों की अभिव्यक्ति होने लगी। ग़ज़ल अब महबूबा का आँचल थी और माँ की शाल भी। ग़ज़ल में आए इस बदलाव को मुनव्वर राणा ने अपने इस शेर में बखूबी बयान किया है -
मामूली एक कलम से कहा तक घसीट लाए
हम ग़ज़ल को कोठे से माँ तक घसीट लाए
~ मुनव्वर राना
मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती
हवा सब के लिए ये मौसमी अच्छी नहीं होती
मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
~ मुनव्वर राना
इस बदलाव के बावजूद भी ग़ज़ल में इश्क़ प्यार मोहब्बत पर आज भी काफी मात्रा में शेर कहे और सुने जाते है। एक पाकिस्तान के मशहूर शायर गुज़रे जिनका नाम जॉन एलीआ था उनके दो मशहूर शेर -
बेगिला हुं मैं कई दिन से
वो परेशान हो गयी होगी
एक हवेली थी दिल महौल्ले में
अब वो वीरान हो गयी होगी
~ जॉन एलीआ
इसी दौर में जहाँ जॉन अपने टूटे दिल की शायरी से मुशायरे लूट रहे थे वही उन्ही मुशायरो में मजरूह सुल्तानपुरी ये शेर पढ़ा करते थे जो अपने आप में एक मिसाल बन गया है -
मैं अकेला ही चला था जानिब ऐ मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
~ मजरूह सुल्तानपुरी
नए दौर में हर विषय पर ग़ज़ल कही जाने लगी जिसमे सियासत देश प्रेम और माँ जैसे विषय लोकप्रिय हुए। राहत इन्दोरी आज के बहुत बड़े शायर है उनकी ग़ज़ल के दो शेर -
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पर सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है
सभी का खून है यहाँ की मिट्टी में शामिल
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
~ राहत इन्दोरी
ग़ज़ल समाज का आईना होती है इसका उदाहरण इस शेर में मिलता है -
लोग टूट जाते है एक घर बनाने में
तुम तरस नही खाते बस्तीयां जलाने में
~ डॉ बशीर बद्र
ग़ज़ल वक़्त के साथ साथ अपने आप को ढालती चली गयी है। युवा कवियों की ग़ज़ल में काफी रूचि है और श्रोताओं में भी ग़ज़ल सुन ने का काफी उत्साह रहता है। ग़ज़ल युवाओं के साथ युवा हो जाती है इसका उदाहरण एक युवा शायर के इन दो शेरो में नज़र आता है।
तुम्हें हुस्न पर दस्तरस है मोहब्बत वोहब्बत बड़ा जानते हो
तो फिर ये बताओ कि तुम उसकी आंखों के बारे में क्या जानते हो
ये ज्योग्राफिया, फ़लसफ़ा, साइकोलाॅजी, साइंस, रियाज़ी वगैरह
ये सब जानना भी अहम है मगर उसके घर का पता जानते हो ?
~ तहज़ीब हाफी
ग़ज़ल ने १३०० सालों से अधिक का सफर तय किया है और आगे भी नयी नस्लों को ग़ज़ल अपनी ओर लुभा रही है। ग़ज़ल जहा दो प्यार करने वालो का सहारा बनती है वही दो पंक्तियों में पूरे देश को एक करने का साहस भी रखती है। ग़ज़ल एक और माँ की मैली ओढ़नी की बात करती है तो वो उस कफ़न की भी बात करती है जिसे सैनिक अपने सर पर बांध कर सीमाओं पर डटा रहता है। ग़ज़ल इंसान की हर भावना के साथ जुड़ी हुई है और हमेशा रहेगी। अंत में आपको कैफ़ी आज़मी के इन शेरो के साथ बांध कर विदा लूँगा -
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की खलल पड़े
हॅसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े
जिस तरह से हॅसे रहा हु मैं पी पी के अश्क़ ऐ ग़म
कोई दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
मुद्दत के बाद की जो उसने लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
~ कैफ़ी आज़मी
लेखक - अश्क़ जगदलपुरी (ashqjagdalpuri@gmail.com)